



Parshwnath Vidayapeeth Varanasi celebrated 74 Republic day in its campus Dr. Shri prakash Panday , Director Parshwnath Vidayapeeth and Prof. Vijay Sankar sukla ,Adviser IGNCA unfledged the flag in Parshwnath Vidayapeeth campus.Then the national anthem recited. All faculty and campus member together celebrated Repulic
Dr. S. P. Pandey and other academic staff of Parshwanath Vidyapeeth, Attending A memorial lecture on `Sanatan Kavi Reva Prasad Dwivedi’ on 21 st September 2023 organised by Indira Gandhi National Center For Arts, Dr. Pandey joined the scholars for release of the book on Prof. Reva Pasad Dwivedi.
१७ अगस्त से ३१ अगस्त २०२३ तक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा ‘श्रमण-परम्परा के स्रोत एवं मौलिक सिद्धान्त’ विषयक एक १५ दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला के उद्घाटन सत्र (१७ अगस्त २०२३) कीr अध्यक्षता की प्रख्यात कलाविद् प्रो. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी जी ने, मुख्य अतिथि थे इन्दिरा गांधी जनजातीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. सी.डी. सिंह, सारस्वत अतिथि थे प्रख्यात समाज सेवी श्री धनपतराजजी भंसाली तथा विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध उद्योगपति श्री संजय गुप्ता।
कार्यक्रम का प्रारम्भ जैन एवं बौद्ध मंगलाचरण से हुआ। अतिथियों का स्वागत संस्थान के निदेशक डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया। संस्थान का परिचय तथा कार्यशाला के आयोजन की आवश्यकता पर डॉ. ओम प्रकाश सिंह ने प्रकाश डाला। विशिष्ट अतिथि श्री संजय गुप्ता ने श्रमण परम्परा का परिचय देते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ को इस कार्यशाला के आयोजन के लिए बधाई दिया। मुख्य अतिथि प्रो. सी. डी. सिंह ने श्रमण परम्परा के मुख्य बिन्दुओं को स्पर्श करते हुए जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों के सिद्धान्तों को वर्तमान सन्दर्भ में अत्यन्त प्रासंगिक बताया। कार्यक्रम की अध्यता करते हुए प्रो.मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन में श्रमण परम्परा की प्राचीनता का ससन्दर्भ उल्लेख किया और बताया कि जैन और बौद्ध कला तथा साहित्य में हमें समरसता और समावेशी स्वरूप की झलक मिलती है। दोनो परम्परओं के केन्द्र में ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की अवधारणा दिखायी देती है। अध्यक्षीय उद्बबोधन के बाद धन्यवाद ज्ञापन कार्यशाला के संयोजक डा. ओम प्रकाश सिंह ने किया।
`भारतीय परम्परा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा अनुदानित
पार्श्र्वनाथ विद्यापीठ, ११ से १३ नवम्बर २०२२ को भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् द्वारा अनुदानित `भारतीय परम्परा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ विषयक एक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी’ का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र दिनांक ११ नवम्बर २०२२ प्रात: ११ बजे आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता की डा. बालमुकुन्द पाण्डेय, राष्ट्रीय संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन समिति, नई दिल्ली तथा मुख्य अतिथि थे- प्रोफेसर रजनीश शुक्ल, कुलपति, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा। सारस्वत अतिथि थे डॉ. सुनील कुमार पटेल, विधायक रोहनियां तथा विशिष्ट अतिथि थे श्री धनपतराज जी भंसाली, प्रख्यात उद्योगपति एवं समाजसेवी, वाराणसी तथा अध्यक्ष पार्श्र्वनाथ विद्यापीठ। संगोष्ठी का प्रारम्भ जैन, बौद्ध और वैदिक मंगलाचरण से हुआ। प्रारम्भ में संगोष्ठी के समन्वयक एवं संस्थान के निदेशक डा. श्रीप्रकाश पाण्डेय ने अतिथियों एवं प्रतिभागियों का स्वागत किया तथा संगोष्ठी के आयोजन के उद्देश्य से सभी को अवगत कराया। संस्था के पुस्तकालयाध्यक्ष डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने संस्था का परिचय और इसकी गतिविधियों की जानकारी दी। पश्चात् प्रो. विभा उपाध्याय, पूर्व अध्यक्ष, प्राचीन इतिहास विभाग, जयपुर विश्वविद्यालय ने संगोष्ठी का बीज वक्तव्य `सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : एक समीक्षा’ प्रस्तुत किया। सारस्वत अतिथि श्री धनपतराज जी भंसाली ने अपने उद्बोधन में कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद का वह विशेष रूप है जिसमें राष्ट्र को एक साझी संस्कृति के रूप में देखा जाता है। विशिष्ट अतिथि श्री सुनील पटेल ने कहा कि भारतीय संस्कृति के संवर्द्धन में श्रमण और ब्राह्मण दोनों संस्कृतियों का अवदान रहा है और दोंनों परम्पराओं में राष्ट्रवाद के तत्त्व व्यापक रूप से विद्यमान हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. बालमुकुन्द पाण्डेय ने अपने उद्बोधन में बताया कि वर्तमान में हमारा राष्ट्र संक्रमण काल से गुजर रहा है। अनेक बाहरी शक्तियां हमारी शान्ति और सद्भाव को नष्ट करने पर आमादा हैं, ऐसे में प्रत्येक भारतवासी के मन में राष्ट्रवाद की भावना का जाग्रत होना अत्यन्त आवश्यक है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. रजनीश शुक्ल ने अपने उद्बोधन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुये कहा कि राष्ट्र निर्माण में पहला प्रमुख तत्त्व मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम, श्रद्धा और समर्पण है। कार्यक्रम के अन्त में धन्यवाद ज्ञापन डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने किया।
संगोष्ठी के कुल छ: सत्रों में ४० से अधिक शोधपत्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विभिन्न पहलुओं पर प्रस्तुत किये गये। जिन विद्वानों ने इस संगोष्ठी में अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये उनके नाम और शोधपत्र के विषय निम्नवत हैं-
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारत-भारतीय की वैदिक पौराणिक परम्परा,प्रो. सीताराम दुबे, पूर्व विभागाध्यक्ष, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, का. हि. वि. वि. वाराणसी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (कुषाण काल के विशेष सन्दर्भ में) प्रो. सुमन जैन, विभागाध्यक्ष, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, का. हि. वि. वि. वाराणसी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतिमान पण्डित दीन दयाल उपाध्याय, डॉ. अरविन्द विक्रम सिंह, अध्यक्ष, दर्शन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
श्री अरविन्द का आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, डॉ. श्रुति मिश्रा, एसोसिएट प्रोफेसर, दर्शन एवं धर्म विभाग, का. हि. वि.वि. वाराणसी।
श्री अरविन्द का सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद, डा. राम नारायण मिश्र, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, एस. बी. कालेज आरा (बिहार)।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का विकास: एक ऐतिहासिक अध्ययन, डॉ. रमेश कुमार विश्वकर्मा, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, दर्शन विभाग, राम मनोहार लोहिया कालेज, बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार
अभिज्ञान शाकुन्तलम् में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा, डॉ. विनोद कुमार तिवारी़, पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, डी.सी.एस.के. महाविद्यालय, मऊनाथ भंजन।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवाद की विवेचना, डा. संजय सिंह, शोध अध्येता, पार्श्र्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
पालि साहित्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, प्रो. विश्वजीत कुमार, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा।
तिब्बती भाषा और साहित्य में राष्ट्रवाद, डॉ. अनिमेष कुमार, केन्द्रीय तिब्बती विश्वविद्यालय, सारनाथ।
पालि भाषा और अशोककालीन समाज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, डॉ. अरुण कुमार यादव,नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, डॉ. सूर्यप्रकाश पाण्डेय, सहायक प्रोफेसर, दर्शन और संस्कृति विभाग, म. गां. अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उद्घोषक संस्कृत एवं बौद्ध-संस्कृत साहित्य, डॉ. रूबी कुमारी, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा।
भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुरातात्विक अभिव्यक्ति, डॉ. अर्चना शर्मा, एसोसिएट प्रोफेसर, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, का. हि. वि. वि. वाराणसी।
प्राचीन भारत में अखण्ड भारत की कल्पना एवं उससे जुड़ी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता, डॉ. अर्पिता चटर्र्जी, एसोसिएट प्रोफेसर, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, का. हि. वि. वि. वाराणसी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और कौटिलीय अर्थशास्त्र, डॉ. राहुल कुमार सिंह, प्रवक्ता, बी. आई. सी., भद्री, कुण्डा, प्रतापगढ़।
भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा: एक विश्लेषण, डा. श्रवण कुमार सिंह, पोस्ट डाक्टोरल पेâलो, वीर वुंâवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा (बिहार)
जैन धर्म और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रेखा, शोधछात्रा, जैन एवं बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, का. हि. वि. वि. वाराणसी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सामाजिक माध्यम, श्रीमती कविता सिंह, शोधछात्रा, समाज शास्त्र, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा
संगोष्ठी का समापन सत्र दिनांक १३ नवम्बर २०२२ को अपराह्न १.३० बजे आयोजित किया गया। समापन सत्र की अध्यक्षता की दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के सदस्य सचिव, प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र तथा मुख्य अतिथि थे प्रो. आर. के. खण्डाल, पूर्व कुलपति, यूपीटीयू, नोयडा। सारस्वत अतिथि थे श्री रामाशीष सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रज्ञाप्रवाह तथा विशिष्ट अतिथि थे श्री कुंवर विजयानन्द सिंह, वरिष्ठ उपाध्यक्ष,पार्श्र्वनाथ विद्यापीठ। समापन सत्र का प्रारम्भ जैन, वैदिक और बौद्ध मंगलाचरण से हुआ। पश्चात् संस्थान के निदेशक और संगोष्ठी के संयोजक डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय ने अतिथियों एवं प्रतिभागियों का स्वागत किया। डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने संगोष्ठी में तीन दिनों में पठित शोध-पत्रों की सविस्तार जानकारी दी। तीन विद्वानों ने संगोष्ठी के प्रति अपने प्रतिभाव व्यक्त किये। सभी ने संगोष्ठी को अत्यन्त सफल और सूचनापरक बताया। सारस्वत अतिथि श्री रामाशीष सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा कि विगत कुछ वर्षों में राष्ट्रवाद सम्बन्धी प्रश्न अत्यन्त मुखर हो गये हैं। राष्ट्र और राष्ट्रीय चेतना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. आर. के. खण्डाल ने बताया कि राष्ट्रवाद एक नया पद है जो अठारहवीं शताब्दी में पश्चिमी देशों से आया यह माना जाता है किन्तु यह भ्रान्त अवधारणा है क्योंकि राष्ट्रवाद विषयक तत्त्व भारत में पहले से मौजूद रहे हैं। कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र, सदस्य सचिव, अखिल भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली ने संगोष्ठी के सुन्दर आयोजन के लिये आयोजकों को बधाई दी तथा श्री अरविन्द, रवीन्द्र नाथ टैगोर, विवेकानन्द तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय के राष्ट्रवादी विचारधारा को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुये उसे सांस्कृतिक राष्ट्र का आधार बताया। डा. ओमप्रकाश सिंह ने अन्त में धन्यवाद ज्ञापन किया।
समापन सत्र के बाद प्रख्यात चिंतक एवं प्रखर राष्ट्रवादी श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ का बहुत सार्थक एवं सुन्दर व्याख्यान हुआ। उन्होंने अपने व्याख्यान में राष्ट्रवाद के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुये भारतीय राजनीति के उतार चढ़ाव के साथ इसे समीकृत किया।